
परंतु ! वीर्य तो पुरुषों के अंडकोषों (Testicals) में होता है न? पूरे शरीर में थोड़ी होता है?
जी नहीं।
यह सबसे ग़लत अवधारणा है कि वीर्य का प्राथमिक स्थान अंडकोष में होता है।
जिस सफ़ेद धातु द्रव्य को हम लोग आज वीर्य मानते हैं वह वीर्य का धातु स्वरूप मात्र है। जो कि मात्र वीर्य के अस्तित्व की स्थूल अवस्था है।
और क्यूँकि आज का मॉडर्न विज्ञान केवल स्थूल अवस्थाओं पर ही शोध कर पाता है, अधिकतर लोग वीर्य के अस्तित्व को इतने में ही समेट लेते हैं कि,
“वीर्य और कुछ नहीं परंतु शरीर का एक द्रव्य मात्र है।
जो कि हर पुरुष के शरीर में प्रतिदिन कुछ मात्रा में बनता रहता है।
वो वीर्य बनकर पुरुषों के अंडकोष में इकट्ठा होता रहता है और जब अधिक इकट्ठा होता है तब यदि आप न निकालो, तो अपने आप निन्द्रा में निकल जाता है।
इसलिए उसको हस्तमैथुन करके निकालने में कोई हानि नहीं है। अतः हस्तमैथुन एकदम हानि रहित है। इसको करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए।’
ग़लत।
पाश्चात्य देशों के मॉडर्न विज्ञान की भौतिक सीमाएँ होने के कारण उन्हें तो इस अपूर्ण ज्ञान के सहारे जीना पड़ता है। परंतु हमें मॉडर्न विज्ञान के सहारे जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत के पास आयुर्वेद के स्वरूप में स्वयं भगवान का दिया गया संपूर्ण विज्ञान है।
आज उसी की सहायता से हम जानेंगे वीर्य का संपूर्ण विज्ञान। जिसमें सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि…
आख़िर… क्या है वीर्य?
वीर्य पुरुष के अस्तित्व का मूलभूत गुण तत्त्व है।
जैसे सूर्य के लिए प्रकाश है, अग्नि के लिए ताप है, शक्कर के लिए मिठास है।
शक्कर की गुणवत्ता उसकी मिठास की मात्रा से आंकी जाती है, अग्नि की उसके ताप की मात्रा से, वैसे ही पुरुष की गुणवत्ता उसके वीर्य की मात्रा से आंकी जाती है।
परंतु ये कैसे हो सकता है?
पुरुष कोई मेडिकल सर्टिफिकेट लेकर थोड़ी घूमते है, जिससे लोगों को पता चले की किस पुरुष में कितना वीर्य है?
जी नहीं।
यहीं पर आवश्यकता पड़ती है वीर्य का संपूर्ण विज्ञान समझने की।
जीवन भर से हम वीर्य का मतलब बस वो द्रव्य ही समझते रहे है जो यौन क्रिया के समय पुरुष के जननेंद्रिय से निकलता है।
परंतु वह मात्र वीर्य की पाँच अवस्थाओं में से एक अवस्था है।
जी हाँ!!
जैसे पेड़ की मुख्य पाँच अवस्थाएँ हैं, फूल, फल, बीज, पौंधा और फिर पेड़।
फिर पुनः वही पेड़ पर फूल आते हैं, उन्हीं फूलों से फल पकते हैं, उन्हीं फलों में बीज परिपक्व होते हैं और उन्हीं बीजों को धरती, जल और सूर्यप्रकाश देने से वह पुनः पौधा और उसके जतन से पेड़ बनता है। कुछ उसी तरह…
वीर्य की मुख्य पाँच अवस्थाएँ हैं –
1. गुणावस्था : Virtue Form,
2. प्राणावस्था : Life Force Form,
3. ऊर्जावस्था : Energy Form,
4. बीजावस्था (धातु अवस्था) : Seed (Semen) Form
5. अमृतावस्था : Nectar Form
वीर्य भी पेड़ की तरह अपनी पाँचों अवस्थाओं के चक्र में से पुनः पुनः गुजरता रहता है।
तो सर्व प्रथम परमात्मा हर जीवात्मा को जिस अवस्था में वीर्य प्रदान करते हैं वो है..
1. गुणावस्था : Virtue Form
गुणावस्था का वीर्य इच्छाशक्ति, संकल्प शक्ति व तपशक्ति के रूप में आत्मा के सूक्ष्म शरीर में विद्यमान होता है। जन्म जन्मांतर में आत्मा अपने कर्मों से उसकी वृद्धि या क्षय करती है और उसे अपने सूक्ष्म शरीर में, अपने साथ अलग-अलग शरीर में लेकर जाती है। यही कारण है कि कुछ बच्चें जन्म से ही अधिक गुणवान और कुछ कम गुणवान होते हैं।
वीर्य की अधिक मात्रा और मृत्यु समय की चेतना के समन्वय से ही आत्मा को अगले जन्म में पुरुष का शरीर मिलता है। और वीर्य के क्षय और मृत्यु समय की चेतना के समन्वय से आत्मा को अगले जन्म में स्त्री का शरीर मिलता है।
पुरुषों में वीर्य की गुणावस्था की व्याख्या करने के लिए स्वयं ‘वीर्य’ शब्द ही पर्याप्त है। ‘वीर्य’ का अर्थ गुण रूप में होता है वीरता, शौर्य, साहस और पौरुष (Manliness); जिनके गौण गुण है अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति तथा दृढ़ नीतिपरायणता आदि।
रामायण, महाभारत, महापुराण और हमारे सभी राजा महाराजाओं के इतिहास में, जब भी इन गुण वाले व्यक्तित्वों की बात हुई है तब उन्हें वीर्यवान शब्द से संबोधित किया गया है।
किसी भी पुरुष में इन गुणों की अधिक मात्रा उस पुरुष में अधिक वीर्य होने के लक्षण हैं और उसी वीर्य की मात्रा से पुरुष की गुणवत्ता आंकी जाती है।
पर भला ऐसा क्यों? यही गुण क्यों?
क्यों इन्हीं गुणों से पुरुष की गुणवत्ता आंकी जाती है?
क्यूँकि इस संपूर्ण अस्तित्व का सर्जन, पालन, रक्षण और संहार पुरुष के पौरुष, वीरता, शौर्य, साहस, अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति, दृढ़ नीतिपरायणता इन्हीं गुणों पर निर्भर है।
इन महान गुणों का चयन करने के लिए ही पुरुष शरीर बना है।
पुरुष के शरीर की हड्डियों के घनत्व (density) से लेकर उनकी चमड़ी की मोटाई (Thickness) तक सभी शारीरिक गुण पुरुषों को इसीलिए दिए गए है जिससे पुरुष जीवन में पौरुष, शौर्य, वीरता आदि दिखा सके और समाज का सर्जन, पालन और रक्षण कर सके।
अतः पुरुष के बीज रूपी वीर्य से ही समाज का सर्जन होता है,
त्याग, तप और अनुशासन रूपी वीर्य से ही समाज का पालन होता है,
शौर्य, साहस, वीरता व निडरता रूपी वीर्य से ही समाज का रक्षण होता है,
इन्हीं गुण स्वरूप वीर्य से वह अधर्मियों और दुष्टों का नाश करता है, और वीर्य से ही अपने वंश परम्परा के माध्यम से अपने मूल्यों को आगे बढ़ाता है।
अतः
वीर्य ही पुरुष के अस्तित्व का सबसे मूलभूतपूर्ण तत्त्व है।
और जब जब आप बीज स्वरूप वीर्य (Semen) शरीर से निकालते हैं तब तब यह सभी गुण भी शरीर से निकलते हैं। फिर यदि वो पत्नी के गर्भ में जाए, तो वे गुण संतान रूप में आपका वंश आगे बढ़ाते हैं।
और यदि नाली में जाए तो आप और आप पे निर्भर आपके परिवार आदि सभी लोगों के अस्तित्व को नर्क की ओर ले जाते हैं।
हालाँकि वह गुण स्वरूप वीर्य बीज स्वरूप वीर्य में परिवर्तित हो इससे पहले वो दो और अवस्थाओं में से होकर गुजरता है।
जिसमें से प्रथम अवस्था है…
2. प्राणावस्था : Life Force Form
आत्मा के सूक्ष्म शरीर में विद्यमान गुण स्वरूप वीर्य ही परिवर्तित होकर संपूर्ण स्थूल (Physical) शरीर के प्रत्येक कोषों में प्राण स्वरूप में विद्यमान होता है। उसी प्राणशक्ति के उपयोग से शरीर का प्रत्येक कोष जीवित रहता है।
इसीलिए गुणवान व्यक्ति एकदम जीवंत (Full of Life) होते हैं और उनको मिलते ही हमें भी अत्यंत ही जीवंत अनुभव होता है।
जब प्राण पूर्ण मात्रा में हों तो वे हमारे रक्त में रोग प्रतिकारक कण (White Cells) की भी वृद्धि करते हैं और शरीर के प्रत्येक कोषों की वीर क्षत्रिय के समान सतत रक्षा करते हैं।
इसी लिए ऐसे लोगों में रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी ज़्यादा होती है कि बड़ी से बड़ी बीमारी भी उन्हें हानि नहीं पहुँचा सकती है।
अतः स्थूल शरीर की बात करें तो, वीर्य प्राथमिक रूप से शरीर के प्रत्येक कोषों में विद्यमान होता है। न की मात्र अंडकोषों (Testicals) में।
और उसी प्राण स्वरूप वीर्य का परिवर्तन सतत उसकी अगली अवस्था में होता रहता है। जिसके उपयोग से ही हमारा शरीर इस भौतिक जगत में सक्रियता प्राप्त करता है, और जिसके बिना हम कोई भी कार्य नहीं कर पाते हैं।
वह अवस्था है…
3. ऊर्जावस्था : Energy Form
मन के आदेश से प्राणस्वरूप वीर्य ऊर्जा में परिवर्तित होता है, फिर मन के आदेश से वही ऊर्जा भावना में परिवर्तित होती है, और वही भावना इंद्रियों के द्वारा कर्म में परिवर्तित होती है।
वैसे देखें तो,
प्रेम, करुणा, वात्सल्य, हर्ष, प्रसन्नता, निर्भयता, उत्साह आदि भावनाएँ हैं और क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मोह, घृणा, भय, कामुकता आदि भी भावनाएँ ही हैं।
ऊर्जा का परिवर्तन सकारात्मक भावनाओं में करने से वही ऊर्जा पुनः प्राण में परिवर्तित होकर प्राण की वृद्धि करती है। और नकारात्मक भावनाओं में परिवर्तन करने से ऊर्जा के साथ प्राण का भी क्षय होता है।
और इन सभी नकारात्मक भावनाओं में भी सबसे अधिक ऊर्जा का क्षय कामुकता व उत्तेजना में होता है। इसीलिए यदि आप अपनी वीर्य ऊर्जा को कामुकता और उत्तेजना में व्यय करते हैं, तो आप जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में ऊर्जाहीन, उत्साहहीन व प्रेरणाहीन (Demotivated) रहोगे।
परंतु यदि आप अपने आपको कामुक विचार (Sexual Thoughts), दृश्य (Porn) या स्पर्श (Masturbation) से उत्तेजित करना बंद कर देते हो तो आपके जीवन के सभी क्षेत्रों में आपको अनन्य उत्साह (Drive) और प्रेरणा (Motivation) देखने को मिलती है।
फिर वो कितना भी छोटा या बड़ा काम क्यों न हो, आपको उसे करने में सहज उत्साह आने लगता है। वैसे ही जीवन के सभी सुखों में भी आनंद की अनुभूति होती है, फिर वो कितना भी साधारण क्यों न हो।
और ऐसे लोग न ही केवल स्वयं उत्साह से जीते हैं अपितु जिनसे मिलते हैं, जिन के संपर्क में आते हैं सबमें एक उत्साह भर देते हैं। जिससे वे क्षण क्षण में कामुकता से भी बेहतर सुख का अनुभव करते हैं।
हालाँकि इस ऊर्जा को पचाना (संपूर्ण सदुपयोग करना) भी अत्यंत ही आवश्यक होता है। जिसका मात्र एक ही तरीक़ा है, शारीरिक श्रम। जो न होने पर वीर्य ऊर्जावस्था से परिवर्तित होकर बन जाता है…
4. बीजावस्था (शुक्राणु) : Seed/Semen Form
जब जब आप शारीरिक श्रम करके वीर्य की ऊर्जा का उपयोग नहीं करते है, तब तब वह ऊर्जावस्था से वीर्य बीजावस्था (Semen) में रूपांतरित होकर आपके अंडकोषों (Testicals) में जमा हो जाता है।
इसी बीजावस्था को प्रचलित रूप से लोग वीर्य मानते है। जो कि वीर्य का स्थूल स्वरूप है और समस्त अस्तित्व की सबसे मूल्यवान धातु है। इसी की गति से यह निर्णय होता है कि आपकी आत्मा की गति किस दिशा में होगी।
बीजावस्था के वीर्य की यह गति तीन दिशाओं में होती है –
1. ऊर्ध्व: ऊपर की दिशा में जब पुरुष अपने वीर्य का संपूर्ण रूप से रक्षण करके दीर्घकाल तक उसका स्खलन नहीं होने देता, तो वह वीर्य शरीर की ऊर्ध्व दिशा में मस्तिष्क के ब्रह्मरन्ध्र की ओर प्रवाहित होता है। ऐसे पुरुषों को शास्त्रों में ऊर्ध्वरता कहा गया है। ऊर्ध्वरताओं की गति हमेशा उच्च लोकों में होती है।
2. मध्य : वंश बढ़ाने की दिशा में वीर्य का उपयोग विवाह की मर्यादा में अपनी पत्नी के गर्भ में दान करके वंश को बढ़ाने में करने की दिशा को मध्य दिशा कहते हैं। ऐसे साधक जो अपने गृहस्थ धर्म का पालन दृढ़ता से करते हैं, वे केवल अपनी ही नहीं अपितु अपने समस्त कुल की गति को उच्च लोकों में करवाते हैं।
3. अधो : नीचे की दिशा में यदि आपको न ही वीर्य का रक्षण करना है और न ही उसका उपयोग वंश बढ़ाने के लिए करना अपितु क्षणिक सुख के लिए, इंद्रियों को उत्तेजित करके वीर्य स्खलित करना है तो ऐसी गति को अधोगति और ऐसे मनुष्यों को अधोरेता कहते हैं। अधोरेताओं की गति अपने वीर्य के समान ही अधोदिशा में अर्थात् नरक की ओर होती है।
आपके वीर्य की अधोगति आपकी अधोगति है।
और इसका परिणाम देखने के लिए आपको मृत्यु तक की भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। यदि आप अपने वीर्य का अधोदिशा में व्यय करते है तो आप न ही मात्र मृत्यु के पश्चात परंतु जीते जी भी मुर्दे के समान ही हो जाओगे
क्यूँकि चाहे योग करना हो या भोग, दोनों के लिए ही स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की आवश्यकता होती है। और वीर्य का व्यय आपके शरीर और मन दोनों को निर्बल बनाकर आपको प्रतिदिन मृत्यु के द्वार के और समीप ले जाता है।
जिससे आप अपने इस अतुल्य मानव शरीर का उपयोग न ही परम ध्येय की प्राप्ति के लिए कर पाते हो और न ही भौतिक संसार के भोगों के लिए कर पाते हो।
जबकि वो लोग जो अपने वीर्य की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं, वे जीते जी इसी जन्म में अमृत का पान करते हैं।
अमृत का पान?
वो भला कैसे हो सकता है?
जी हाँ,
हो सकता है।
क्यूँकि जब आप बीजावस्था में वीर्य का रक्षण दीर्घकाल तक करते हो तो वह परिपक्व होने के पश्चात् अपनी अंतिम उच्चतम अवस्था में परिवर्तित होता है।
जो कि है…
5. अमृतावस्था : Nectar Form
जी हाँ!
जब बीजावस्था में वीर्य का रक्षण दीर्घकाल तक किया जाता है तो वो परिपक्व होकर ऊर्ध्व दिशा में प्रवाहित होता है और फिर मस्तिष्क के ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कर अमृत में परिवर्तित हो जाता है।
यह वही अमृत है जिसकी सहाय से ऋषि, मुनि और तपस्वी बिना कुछ खाए पिए वर्षों तक तपस्या करते रहते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं।
इस अमृत का पान हठयोग की अनेक क्रियाओं की सहायता से किया जाता है। जोकि सामान्य मानव के लिए अत्यंत ही कठिन होती हैं।
उनमें से एक प्रचलित क्रिया है ‘खेचरी मुद्रा’ । जिसमें साधक अपनी जीभ के तलवे से जुड़ी चमड़ी (Tongue Tie) को काटकर जीभ को प्रतिदिन खींच कर लंबा करता है।
फिर प्रतिदिन कठोर अभ्यास से जीभ को नाक और मुख को जोड़ने वाले द्वार से मस्तिष्क के नीचे सुषुम्ना नाड़ी के बिंदु द्वार को छू लेता है जहाँ से हर एक ऊर्ध्व रेता ब्रह्मचारी का वीर्य अमृत बिंदु स्वरूप में झरता है।
इस अमृत बिंदु के पान से न ही भूख लगती है, न ही प्यास।
और लंबे समय के सतत पान से आयु बढ़ना भी रुक जाती है और साधक सदियों तक जीवित रह सकता है। हालाँकि इसके लिए दशकों का अखंड ब्रह्मचर्य होना अत्यंत ही आवश्यक होता है।
आज के मॉडर्न समय में यह सभी बातें सुनकर अधिकतर युवा यह कह कर मुँह फेर लेते हैं कि यह सब सुनी सुनाई अवैज्ञानिक बातें हैं। इनका कोई आँखों देखा सबूत नहीं है।
परंतु यह सत्य नहीं है।
प्रथम बात कि मॉडर्न विज्ञान को हर किसी चीज़ का प्रमाण नहीं मान सकते। मॉडर्न विज्ञान मानव की इंद्रियों के सक्षमता तक सीमित है। जिसके कारण वह मूलभूत रूप से ही अपूर्ण है और दिन प्रतिदिन बदलता रहता है।
हालाँकि फिर भी, अमृत बिंदु के अस्तित्व को 2003, 2010 और 2017 में 35 वैज्ञानिकों की टीम की 15 दिन की सतत देख रेख में गुजरात के प्रह्लाद जानी नामक साधक ने सिद्ध भी किया था।
वे 70 वर्षों से बिना कुछ खाए पिए जीवित थे। जिनको झुठलाने और ढोंगी साबित करने के लिए काफ़ी विदेशी वैज्ञानिकों ने उन पर काफ़ी टेस्ट किए परंतु 15 दिन की सतत CCTV की निगरानी में भी उन्होंने कुछ खाया या पिया नहीं था।
फिर भी उनके सारे लैब टेस्ट नॉर्मल आ रहे थे और 2017 में DRDO की Brain Imaging Study में वैज्ञानिकों ने यह बताया कि प्रह्लाद जानी जी 87 वर्ष के होने के पश्चात् भी उनकी Pineal and Pituitary glands की अवस्था किसी 10 वर्ष के बच्चे के समान युवान है।
जो कि एकदम असंभव सा प्रतीत होने पर सभी विदेशी वैज्ञानिकों ने हारकर उनपर लैब टेस्ट करना बंद कर दिया था।
कुछ वर्ष पहले वे देश विदेश के अख़बारों और न्यूज़ चैनेलों में इस टेस्ट के कारण प्रचलित भी हो गए थे और यह सभी लैब टेस्ट आज भी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है देखने के लिए, और आज तक कोई वैज्ञानिक इन्हें झुठला नहीं पाया है।
तो,
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे शास्त्रों में बताई गई समस्त विधियाँ संपूर्ण रूप से सार्थक है। यदि उनको यथारूप किया जाए तो प्रत्येक विधि परिपूर्ण रूप से काम करती हैं।
परंतु,
हमारी बात करें यहाँ तो,
1. हम तो इतने बड़े साधक हैं नहीं,
2. न ही हम कोई बड़े योगी हैं,
3. न ही हम ये सारी कठिन मुद्राएँ कर सकते हैं,
4. और न ही हम 70 वर्ष का ब्रह्मचर्य धारण किए है। तो हमारा वीर्य अमृतावस्था में परिवर्तित होगा क्या?
और होगा तो भी हम तो उस अमृत का पान कर नहीं पाएँगे, तो उस अमृत का क्या होगा? वो व्यर्थ नहीं जाएगा? यदि व्यर्थ जाएगा, तो इतनी सारी मेहनत और संयम का क्या लाभ?
जी नहीं!
ऐसा कुछ नहीं होगा। जैसा कि हमने शुरुआत में ही बताया की वीर्य की यह अवस्थाएँ पेड़ की पाँच अवस्थाओं के समान है। फूल, फल, बीज, पौंधा और फिर पेड़।
पेड़ पर फूल आते हैं, उन्हीं फूलों से फल पकते हैं, उन्हीं फल में बीज परिपक्व होते हैं और उन्हीं पक्व बीज को धरती, जल और सूर्यप्रकाश देने से वह पुनः पौधा और उसके जतन से पेड़ बनता है, फिर पुनः उसी पेड़ पर फूल आते हैं और ऐसे ही अस्तित्व का यह चक्र चलता रहता है।
वैसे ही वीर्य जब अमृतावस्था को प्राप्त करता है तो वह अमृत पुनः गुणावस्था में परिवर्तित होकर पुरुष में वीरता, शौर्य, साहस, पौरुष (Manliness), अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति, दृढ़ नीतिपरायणता आदि की वृद्धि करता है और साथ में मस्तिष्क को पोषण देकर यादशक्ति, ध्यानशक्ति और संकल्प शक्ति को भी बढ़ाता है।
परंतु यह सभी अमृत के फ़ायदे सिर्फ़ सात्विक वीर्य से ही होते हैं, न ही राजसिक और न ही तामसिक।
क्या? अब वीर्य के स्वभाव भी होते हैं?
जी हाँ!
वीर्य के 3 उद्गम स्थान होते है, और उन्हीं के अनुसार..
वीर्य 3 स्वभाव के होते हैं –
1. सात्विक वीर्य : आत्मा से आया वीर्य प्रथम गुण स्वरूप वीर्य बनता है।
2. राजसिक वीर्य : भोजन से आया वीर्य सीधा प्राण स्वरूप वीर्य बनता है।
3. तामसिक वीर्य : रसायणों से आया वीर्य सीधा ऊर्जा स्वरूप वीर्य बनता है।
सात्विक वीर्य :
हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी गुण, तत्त्व और विषयों का स्त्रोत भी परमात्मा ही है। हम ऐसा कह सकते हैं कि हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए हम अन्य तत्त्वों के सहित वीर्य को भी उन्हीं से उधार लेते है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें भगवद् गीता : अध्याय 10 और 14
अतः सात्विक वीर्य का उद्गम स्थान भी परमात्मा ही है।
यह वीर्य जन्म से 14-16 वर्ष तक सबसे अधिक स्फुरित होता है और 19-25 वर्ष तक संपूर्ण रूप से परिपक्व हो जाता है।
इसीलिए हमारे गुरुकुलों में 25 वर्ष की आयु तक पुरुष को ब्रह्मचारी रहने का प्रावधान है। जिससे इस सात्विक वीर्य का संपूर्ण उपयोग शरीर, मस्तिष्क और चेतना के विकास में करके विद्यार्थी को एक आदर्श नागरिक बनाया जा सके।
सात्विक वीर्य का स्वभाव स्थिर होता है।
यह वीर्य सरलता से शरीर से निकल नहीं जाता, इसीलिए इसका संचय सबसे आसान होता है। सात्विक वीर्य ही अमृतावस्था में परिवर्तित हो सकता है, अन्य सभी वीर्य मात्र बीजावस्था और ऊर्जावस्था तक ही परिवर्तित हो सकते है।
सात्विक वीर्य से उत्पन्न हुई संतान मेधावी, धार्मिक, शांत और भक्तिमय होती है। सात्विक वीर्य का व्यय तीन कारणों से होता है।
1. स्खलन (Ejaculation),
2. प्रजल्प (अनावश्यक विषयों पर वाणी व्यर्थ गँवाने से) और
3. तामसिक वीर्य (External Testosterone etc Drugs) से।
सात्विक वीर्य की वृद्धि के भी मात्र तीन साधन हैं,
1. साधुसंग : भगवान के पार्षदों और भक्तों का संग
2. नाम जप : भगवान के पवित्र नामों का नियमित जप
3. सात्विक भोजन : भगवान को अर्पित सात्त्विक भोजन प्रसाद
राजसिक वीर्य :
राजसिक वीर्य का उद्गम स्थान है राजसिक भोजन।
जब भोजन में अधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ का सेवन किया जाता है तो उनसे शरीर में बनने वाला वीर्य राजसिक होता है। यह वीर्य स्वभाव से राजसिक होने से साधक के स्वभाव में भी राजसिकता बढ़ाता है।
राजसिक वीर्य का स्वभाव चंचल होता है।
अतः इसका संचय करना अधिक कठिन होता है और यह वीर्य सरलता से शरीर से निकल जाता है। इसीलिए यह वीर्य अधिकतर प्राणावस्था से बीजावस्था तक की परिवर्तित हो सकता है।
राजसिक वीर्य शरीर में सात्विक वीर्य से अधिक प्रमाण में स्थूल ऊर्जा उत्पन्न करता है, इसीलिए क्षत्रिय और पहलवान आदि के लिए अधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ सार्थक रहते हैं।
परंतु ब्राह्मण, वैष्णव, तपस्वी, योगी और कोई भी जो अपनी आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ने की कामना रखता है, उनके लिए अत्याधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ उनकी आध्यात्मिक साधना में बाधक होते हैं। इसलिए वे उनका त्याग करते हैं।
यहाँ तक की राजसिक वीर्य से उत्पन्न हुई संतान भी चंचल, अभिमानी, राजसिक और अधिक भौतिक इच्छाओं वाली होती है। इसीलिए उच्च स्तर के धार्मिक क्षत्रिय आज भी गर्भाधान करने से पहले 3 से 6 महीने तक अपना आहार सात्विक करके जप, तप, साधुसंग और सात्विक भोजन करते हैं। जिससे वीर्य सात्विक हो जाता है और संतान मेधावी होती है।
राजसिक वीर्य का व्यय तीन कारणों में होता है,
1. स्खलन,
2. शारीरिक निष्क्रियता और
3. तामसिक वीर्य से।
जब कि उसकी वृद्धि का एक ही साधन है, अधिक प्रोटीन वाला भोजन। उसमें भी सबसे बड़ा साधन है मांसाहार व अंडे। फिर उसके बाद सोयाबीन, मसूर दाल व उड़द डाल आदि, क्यूँकि उसमें भी अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है, जो कि राजसिक वीर्य बनाता है।
तामसिक वीर्य :
तामसिक वीर्य का उद्गम स्थान है बाह्य द्रव्य रसायण।
(Clinically Injected Chemical Testosterone or Steroids) जिन्हें सीधा रक्तवाहिनी में इंजेक्शन से प्रवाहित किया जाता है।
यह रसायण शरीर की माँसपेशियाँ से इस हद्द तक की ऊर्जा उत्पन्न करवाते है जितनी प्राकृतिक रूप से न ही संभव है और न ही शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद ।
इस रसायण की ऊर्जा से बनने वाला वीर्य तामसिक वीर्य होता है। यह वीर्य प्राणहीन होने से उसका स्वभाव शिथिल (मृत) होता है। अतः इसका संचय और उपयोग दोनों ही असंभव होता है।
इसका अधिक प्रमाण में उपयोग शरीर में वर्तमान में उपस्थित प्राण, आयु और सात्विक व राजसिक वीर्य का नाश करता है। और शरीर की प्राकृतिक वीर्य बनाने वाली ग्रंथियों को सुखाकर वीर्य का प्राकृतिक उत्पादन धीरे धीरे बंद कर के पुरुष के जननांग को भी संकुचित कर देता है।
उसका उपयोग बंद करने पर भी शरीर के लिए प्राकृतिक वीर्य बनाना असंभव सा हो जाता है। जिसके कारण व्यक्ति को जीवन पर्यन्त उन्हीं रसायणों (Steroids) के इंजेक्शन लेकर अल्पायु को व्यतीत करना पड़ता है।
ऐसे रसायण (Steroids) का उपयोग अधिकतर मॉडर्न बॉडी बिल्डिंग, लड़ाई और अन्य शारीरिक बल व फुर्ती वाले खेलों में होता है।
इन तीनों के उपरांत एक और वीर्य का प्रकार है जिसको राजसिक-तामसिक वीर्य कह सकते हैं, जो कि Supplements से बनता है।
राजसिक इस लिए क्यूँकि इसे भोज्य पदार्थ के रूप में लिया जाता है, सीधा रक्त में इंजेक्ट नहीं किया जाता है और तामसिक इस लिए क्यूँकि अप्राकृतिक रूप से रसों (Nutrients) को सांद्र (Concentrated, Saturated) करके बनाया गया है। इसका उपयोग आवश्यकता होने पर फ़ायदेमंद हो सकता है परंतु यदि स्वस्थ व्यक्ति को इनका उपयोग टालना चाहिए।
अब आइए जानते हैं की, इन तीनों प्रकार के वीर्यों को धारण करने वाला धातु स्वरूप…….